الخميس، 20 فبراير 2020

قصيدة شعبية بعنوان {{منْ شِبّاكْ بيتها}} بقلم الشاعر السوري القدير الأستاذ{{جمال خضور}}

قطفةشعر.. من (زورق الليل) 

منْ شِبّاكْ بيتها.. 
الأزرقْ.. 
اتْراقِبْ هالطّريقْ.. 
ياللي بْعيدْ.. 
ويتْسَمَّروا عْيونها.. 
عَ المفرقْ.. 
يمْكِنْ.. 
تِلْمَحْ خْيالو.. 
وتِحْلَىٰ فَرْحِتكْ.. 
ياعيدْ.. 
غابِتْ هاكْ الشمسْ.. 
وأَخْدِتْ معا.. 
المفرقْ.. 

كَرْجِتْ منْ عيونها.. 
دَمعة.. 
والتَْنهيدة  سِخْنِة.. 
وتْدَوِّبْ.. 
الشمعة.. 
فوتي ياحلوة.. 
وسَاهْري القَنديلْ.. 
مْنّو دَمعة عَ فْتيلْ. 
ومِنِّكّك عَ خدودْ الوردْ.. 
دَمعة.. 

ولّْا… 
نامي ياحلوة.. 
وخلّي هالسَّهرْ.. 
يغفا.. 
يمكنْ.. 
عَ بوابْ القلبْ.. 
يْدَقْدِقْ حلمْ.. 
يرتاخ بالِكْ.. 
والجرحْ.. 
يشفا.. 

ولو بالحلمْ هالحلو.. 
زارِكْ.. 
إنسي العتبْ.. 
ولاتلومي..
وياعمري..
أنا الشاعرْ.. 
وعَ بواب دارِكْ.. 
أنا ناطِرْ.. 

هْمومِكْ أصغرْ..
منْ همومي.. 
ولَمّا الصبحْ.. 
منْ غفوتو يصْحا.. 
قدّامْ هالشباكْ.. 
اتْلاقيني .. 
بْدَيّاتي وردْ.. 
لا مطرْ.. 
ولاغيومْ.. 
لابرقْ..يِلْمَعْ.. 
ويْموتْ هاكٰ.. 
الرعدْ.. 
سما زرقا..
وشمسْ اتغازلْ خيالنا.. 
والشوق.. 
بالدَْفا يْضمْنا.. 
وتستحي هالشمسْ.. 
وخْدودا منْ الخَجَلْ.. 
اتْصيرْ حَمْرا.. 
ولابَقىٰ اتغيبْ.. 
وتاخُدْ مَعا.. 
هالمفرقْ.. 

    سوريا/جمال خضور

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